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श्रम विभाजन और जाति प्रथा | 10th Hindi Bihar Board

 

श्रम विभाजन और जाति प्रथा 

लेखक के बारे में 

दलितों के मसीहा डा० भीमराव अंबेदकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई. में महू, मध्यप्रदेश के एक निर्धन परिवार में हुआ था। वे अपनी माता-पिता की चौदहवीं संतान थे। उन्होंने 1907 ई. में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इनकी मेधा से प्रभावित होकर बड़ौदा नरेश ने इनकी उच्च शिक्षा की जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ली और इन्हें आर्थिक सहायता प्रदान कर पहले अमेरिका, फिर इंग्लैंड भेज दिया। बाबा साहेब ने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के जरिए अध्ययन किया तथा ऐतिहासिक और सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत कीं। वे इतिहास मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता थे। उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए। अथक प्रयास किया। उनके चिंतन व उनकी रचनात्मकता के मुख्यतः तीन प्रेरक व्यक्ति रहे बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले। भारत के संविधान निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसलिए आज इन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कहा जाता है। बाबा साहेब का निधन 1956 में दिल्ली में हुआ।

 

पाठ का सारांश 

श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ शीर्षक पाठ संविधान निर्माता और गरीबों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेदकर द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत पाठ को लेखक ने हमारे समाज में फैली हुई बुराई ‘जाति प्रथा’ को बताने के लिए लिखा है। वे कहते हैं कि जाति प्रथा को लोग श्रम विभाजन का रूप मानते हैं। यह कतई ठीक नहीं है। अगर जाति प्रथा श्रम विभाजन का रूप है तो कोई जाति ऊँची और कोई जाति नीची कैसे है ? जाति प्रथा के अनुसार श्रम विभाजन कहीं से ठीक नहीं क्योंकि इसके अनुसार जिस जाति में जन्म लिया उस पेशे को करने की मजबूरी होती है। चाहे उस कार्य की उसे जानकारी हो या नहीं। यह भी कहीं से उचित नहीं जान पड़ता है। जाति प्रथा विकास में भी बाधक है क्योंकि इसके कारण मनुष्य को पैतृक पेशा को करने की मजबूरी है। अगर आदमी को मन के लायक काम नहीं मिलेगा तो उदासीन मन से काम करेगा जिससे विकास प्रभावित होगा। इससे मनुष्य को आय भी कम होगी। अंत में लेखक कहते हैं कि जाति प्रथा हर दृष्टिकोण से गलत है। श्रम विभाजन योग्यता के आधार पर होगा तो लाभ ही लाभ होगा। जाति प्रथा की समाप्ति से एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा जहाँ कोई ऊँच और नीच नहीं होगा। सभी प्रेम से रहेंगे।

 

श्रम विभाजन और जाति प्रथा VVI Objective Question

 

(1). बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जन्म कहाँ हुआ था?

उत्तर महू, मध्य प्रदेश में

(2). बाबा साहेब किसके प्रोत्साहन पर उच्चतर शिक्षा के लिए विदेश गए?

उत्तर: बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर।

(3). लेखक के तीन प्रेरक व्यक्ति कौन थे ?

उत्तर : बुद्ध कबीर और ज्योतिबा फुले ।

(4). लेखक के अनुसार जाति प्रथा किसके लिए अभिशाप है?

उत्तर : मानवता के लिए।

(5). लेखक के अनुसार आदर्श समाज क्या है ?

उत्तर : स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित समाज आदर्श समाज है।

(6). बाबा साहेब ने लोकतंत्र में क्या आवश्यक माना है ?

उत्तर : बाया साहेब ने लोकतंत्र में अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान के भाव को आवश्यक माना है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा VVI Subjective Question

 

(1). लेखक किस विडंबना की बात करते हैं? विडंबना का स्वरूप क्या है?

उत्तर: लेखक जिस विडंबना की बात करते हैं, वह है-इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं होना।

विडंबना का स्वरूप है-कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन और चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा स्वरूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।

(2). अम्बेदकर के अनुसार जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ?

उत्तर : जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में तर्क देते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में ‘कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन आवश्यक है और जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही रूप है इसलिए यह भी आवश्यक है।”

(3). जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं?

उत्तर: जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ हैं कि यह श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिये हुए है। यह पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण करती है। साथ ही मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है।

(4). जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती ?

उत्तर: जाति प्रथा भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप इसलिए नहीं कही जा सकती क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके।

(5). जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है?

उत्तर: हिंदू धर्म की जातिप्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

(6). लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मानते हैं और क्यों ?

उत्तर: लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या उस निर्धारित कार्य को मानते हैं जिसे लोग ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है।

(7). लेखक ने पाठ में किन प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है ?

उत्तर लेखक ने पाठ में जाति प्रथा को श्रम विभाजन के पहलू से, आर्थिक पहलू से, तकनीक के पहलू से तथा लोकतन्त्र के पहलू से भी एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है।

(8). सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है?

उत्तर : सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने यह आवश्यक माना है कि समाज में गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो ।

(9). श्रम विभाजन और जातिप्रया’ पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखें।

उत्तर : ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ शीर्षक पाठ संविधान निर्माता और गरीबों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेदकार द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत पाठ को लेखक ने हमारे समाज में फैली हुई बुराई ‘जाति प्रथा’ को बताने के लिए लिखा है। वे कहते हैं कि जाति प्रथा को लोग श्रम विभाजन का रूप मानते हैं। यह कतई ठीक नहीं है। अगर जाति प्रथा श्रम विभाजन का रूप है तो कोई जाति ऊंची और कोई जाति नीची कैसे है ? जाति प्रथा के अनुसार श्रम विभाजन कहीं से ठीक नहीं क्योंकि इसके अनुसार जिस जाति में जन्म लिया उस पेशे को करने की मजबूरी होती है चाहे उस कार्य की उसे जानकारी हो या नहीं। यह भी कहीं से उचित नहीं जान पड़ता है। जाति प्रथा विकास में भी बाधक है क्योंकि इसके कारण मनुष्य को पैतृक पेशा को करने की मजबूरी है। अगर आदमी को मन के लायक काम नहीं मिलेगा तो उदासीन मन से काम करेगा जिससे विकास प्रभावित होगा। इससे मनुष्य को आय भी कम होगी। अंत में लेखक कहते हैं कि जाति प्रथा हर दृष्टिकोण से गलत है। श्रम विभाजन योग्यता के आधार पर होगा तो लाभ ही लाभ होगा। जाति प्रथा की समाप्ति से एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा जहाँ कोई ऊँच और नीच नहीं होगा। सभी प्रेम से रहेंगे।

 

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